राजस्थान सरकार ने इस वर्ष एक ऐतिहासिक फैसला लिया—पर्यूषण पर्व (28 अगस्त) और अनंत चतुर्दशी (6 सितंबर) को पूरे प्रदेश में नॉनवेज, मछली और अंडे की दुकानों के साथ-साथ बूचड़खाने भी बंद रखने का आदेश दिया है। पहली बार, अंडे बेचने वाली दुकानों को भी पूरी तरह बन्द का निर्देश दिया गया है, यानी अब इन पावन पर्वों पर नॉनवेज तो मयस्सर नहीं होगा, लेकिन शहर का हर शराब ठेका खुला रहेगा।
सराहनीय कदम, लेकिन अधूरी संवेदनशीलता
सरकार का यह कदम धार्मिक संगठनों और बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की वर्षों पुरानी मांग को मान देने वाला है। जैन समाज समेत अन्य धार्मिक समुदायों ने इस निर्णय का स्वागत किया है। सचमुच, समाज में संयम, अहिंसा और सहिष्णुता का संदेश देना जरूरी है—इसलिए मीट-अंडा बिक्री पर रोक सराहनीय है।
सवाल: शराब पर पाबंदी क्यों नहीं?
लेकिन यहीं पर सरकार की मंशा पर बड़ा सवाल खड़ा होता है।
अगर आस्था और पवित्रता के नाम पर गांव-शहर की हजारों गरीब मीट/अंडा दुकानों और बूचड़खानों को तालाबंद किया जा सकता है, तो शराब जैसी घातक और सामाजिक बुराई की दुकानों को क्यों खुला छोड़ दिया गया?
शराब—जिससे रोज़ाना पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक तबाही होती है, उसकी दुकानों पर न रोक है, न चिंता।
ऐसे में सरकार का यह कदम पूरी तरह ‘धार्मिक भावनाओं का सम्मान’ नहीं, बल्कि ‘चयनित संवेदनशीलता’ और सत्ता-लाभ वाली सोच का प्रमाण भी लगता है।
गरीब का नुकसान, अमीर का फायदा
मीट और अंडे की दुकानें चलाने वाले ज्यादातर गरीब मेहनतकश हैं, जिन्हें दो दिन की बंदी सीधा जेब पर मारती है। इसके उलट, शराब कारोबार और ठेकों से सरकार को करोड़ों की रॉयल्टी मिलती है—शायद इसी वजह से वहां सरकार की संवेदनशीलता खुद-ब-खुद सिमट जाती है।
राजस्थान सरकार का फैसले में श्रद्धा का सम्मान है, लेकिन ईमानदारी और न्यायात्मक दृष्टिकोण में अधूरापन भी है।
सरकार से सवाल बनता है—क्या असली धार्मिक भावनाओं का सम्मान ‘चयनित बंदी’ से होगा, या सम्पूर्ण सामाजिक बुराइयों (जैसे शराब) पर भी वही सख्ती बरती जाएगी?
जो कदम देश, समाज और धर्म के नाम पर उठाया गया है, वह तब ही पूरी तरह सार्थक होगा जब इसकी संवेदनशीलता हर वर्ग, हर बुराई और हर व्यक्ति के लिए समान हो—चाहे वह गरीब मजदूर हो या शराब कारोबारी।




